हे पार्थ! जो कर्ता नहीं बनता, वही मुक्त होता है
―डॉ.विवेक चौरसिया
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जगतवंद्य, जगदीश्वर श्रीकृष्ण की भक्त वत्सलता का आलम यह है कि एक बार जिसे अपना लेते हैं फिर कभी उसका साथ-हाथ नहीं छोड़ते। श्रीकृष्ण के जीवन में अर्जुन भक्त का प्रतीक है। दोनों पहली बार द्रौपदी के स्वयंवर में मिले थे, तब से ऐसे एकाकार हुए कि अंत तक एकरस ही रहे। पाण्डव जब जूएँ में सब कुछ हारकर वनवास को विवश हुए तब भगवान ने अर्जुन से अपनी अनन्यता की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी। कहा था, ‘ममैव त्वं तवैवाहं ये मदीयास्तवैव ते। यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्त्वामनु स मामनु।।’ हे पार्थ! तुम मेरे हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है, वह मुझसे भी रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वही मेरे भी अनुकूल है।
भक्त के संकटकाल में यह पहला अवसर था जब वनपर्व में श्रीकृष्ण ताल ठोककर स्वयं वचनबद्ध हुए थे। इससे पहले खांडवदाह, इंद्रप्रस्थ की स्थापना और सुभद्रा हरण के बाद अत्यंत आवेश में आए बलराम से अर्जुन की रक्षा के अवसरों पर श्रीकृष्ण भक्त अर्जुन के ‘सहायक‘ थे लेकिन जब भाइयों सहित उसे राज्य लक्ष्मी से वंचित घोर संकट में पाया तो अपनी अनन्यता का उद्घोष करने में भगवान ने एक पल की देरी न की। ‘आश्वस्त’ किया, ‘मैं हूँ न!’
इतना ही नहीं, इस आश्वस्ति का अर्जुन सहित पांडवों को अखण्ड अहसास भी कराया और पूरी वनवास अवधि में निरंतर सभी की सुरक्षा के प्रति सचेत बने रहे। यह भक्त के प्रति मोह ही था जो उन्हें दोबारा तब वन में खींच लाया जब अर्जुन देवताओं से दिव्यास्त्र लेकर वापस लौटे थे। कोई आठ वर्ष के अंतराल बाद काम्यकवन में अर्जुन को दिव्यास्त्रों से सम्पन्न और सकुशल देख कृष्ण ने दौड़कर अपनी भुजाओं में भर ह्रदय से लगा लिया था। भक्त की कुशलता में ही भगवान की प्रसन्नता है। मानो जताया कि ‘हे धनजंय! तुम कुशल हो तो मेरे तन-मन-जीवन में भी मङ्गल है!’
एक वर्ष के अज्ञातवास के साथ जब पांडवों का वनवास पूरा हुआ तब अभिमन्यु-उत्तरा के विवाह के बहाने अर्जुन से मिलने कृष्ण तत्काल विराट की राजधानी पहुँच गए थे। वहाँ राज्य प्राप्ति के लिए हुई पांडव पक्ष की पहली आपात बैठक में दुर्योधन के प्रति बलराम के झुकाव को कृष्ण ने अपनी वाक् पटुता से कितनी सहजता के साथ पांडवों के पक्ष में परिवर्तित कर दिया था, इसकी गवाही विराट पर्व के पहले अध्याय में आज भी प्रत्यक्ष है। युधिष्ठिर शांति चाहते थे तो कृष्ण शांतिदूत भी बने, मगर मान भक्त अर्जुन और सखी द्रौपदी का ही रखा। जो राज्य के साथ हर हाल में कौरवों से अपमान के प्रतिशोध के लिए युद्ध के पक्षधर थे। अन्ततः दुर्योधन के हठ में कृष्ण की ‘कृपा’ से धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र सज ही गया। आखिर भगवान भक्तों की युद्धाकांक्षा के प्रतिकूल कैसे हो सकते थे! अर्जुन से कहा जो था, ‘जो तुम्हारे अनुकूल है, वहीं मेरे भी अनुकूल है!’
रणभूमि में अर्जुन जब प्रतिपक्ष में अपनों को ही देख दिग्भ्रम में पड़े और विचलित हुए तब कृष्ण ने सद्गुरु की भाँति भक्त का भ्रम दूर करने के लिए श्रीमद्भागवतगीता का उपदेश दिया। जो अर्जुन पलायन को तत्पर था, उसे कर्म का पाठ पढ़ाया। वह भयाकुल हुआ तो विश्वास दिलाया कि चिंता मत कर। इसलिए कि ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।’ जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी ही उपासना करते हैं, जो केवल मुझमें ही निरंतर आस्था रखते हैं, उन भक्तों का योगक्षेम फिर मैं स्वयं ही वहन करता हूँ। अर्थात जो अप्राप्य है उसका योग ( प्राप्ति ) कराता हूँ और जो प्राप्त है उसका क्षेम ( रक्षा ) करता हूँ।
श्रीकृष्ण इसीलिए बिरले हैं कि भक्त से अद्वैत की घोषणा आगे बढ़कर करते हैं। आवश्यकता में उसके सहयोगी बनते हैं। संकट में अनन्यता की आश्वस्ति देकर ऊर्जा प्रदान करते हैं। दिग्भ्रमित होने की अवस्था में सद्गुरु बन पथ प्रदर्शन करते हैं और भय की स्थिति में योगक्षेम की वह ‘गारंटी’ देते हैं, जिसे देने का माद्दा जगत में केवल कृष्ण के ही पास है। उनके सिवा दूसरे किसी के बूते में नहीं।
और इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है गीता के बाद ‘अनुगीता’ का उपदेश। ध्यान रहे युद्धभूमि में कृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ सुनाई और युद्ध के बाद ‘अनुगीता’! गीता 18 अध्याय की मगर अनुगीता 36 अध्याय की। गीता में 700 श्लोक हैं तो अनुगीता में लगभग डेढ़ गुना यानी 1041 श्लोक हैं। महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में एक पूरा अनुगीता पर्व है, जिसके कुल 77 अध्यायों में 36 अध्याय में श्रीकृष्ण के श्रीमुख से ‘अनुगीता’ का अद्भुत उपदेश है। गीतोपदेश के समय जय लक्ष्य थी और जय के लिए अर्जुन का भ्रम निवारण उद्देश्य था लेकिन अनुगीता के समय मुक्ति लक्ष्य थी और सम्भावित ‘अहंकार’ का निवारण मूल उद्देश्य था।
कहीं जय के बाद अर्जुन को यह ‘मुगालता’ न हो जाए कि जय उसी के गाण्डीव के सहारे मिली है और यह अहंकार विजयोपरांत उसकी मुक्ति में बाधक न बन जाए, इसलिए ‘सफलता’ के बाद भी कृष्ण भक्त के भले के लिए उसका साथ निभाने में चूक नहीं करते। इसी कारण अर्जुन को अनुगीता का उपदेश देते हुए बोले, ‘अकर्मवान् विकाङ्क्षश्च पश्येज्जगदशाश्वतम्। अश्वत्थसदृशं नित्यं जन्ममृत्युजरायुतम्।। वैराग्यबुद्धि: सततमात्मदोषव्यपेक्षक:। आत्मबन्ध विनिर्मोक्षं स करोत्यचिरादिव।। अर्थात हे पार्थ! जो किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनता, जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो इस जगत को अश्वत्थ के समान अनित्य काल तक न टिक सकने वाला समझता है। जो सदा इसे जन्म, मृत्यु और जरा से युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराग्य में लगी रहती है और जो निरन्तर अपने दोषों पर दृष्टि रखता है, वह शीघ ही अपने बन्धनों का नाश कर मुक्त हो जाता है।
साधो! मुक्ति तभी सम्भव है जब कर्ता-भाव का लोप हो जाए। हम सब सदा कर्ता भाव से भरे होते हैं। हमारा प्रत्येक पल अनन्त अनाम लोगों की कृपा का कर्ज़दार होता है, बावज़ूद इसके हम ख़ुद को ख़ुदा समझने का मुगालता पाले जीते हैं और अमुक्त ही मर जाते हैं। जो एक बार श्रीकृष्ण का शरणागत हो जाता है, तब उसके प्रति अपनी अनन्यता स्वयं भगवान घोषित करते हैं। विचलन में उसे योगक्षेम का विश्वास दिलाते हैं और वचन अनुरूप विश्वास की रक्षा भी करते हैं। और तो और लक्ष्य सिद्धि के बाद मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। अब हमारे हाथ है कि एक बार तो कहे, ‘श्रीकृष्ण शरणं मम:!’
―डॉ.विवेक चौरसिया
(लेखक धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों के अध्येता एवं मर्मज्ञ हैं)