विक्रमादित्य व शालिवाहन : भारतीय परंपरा के दो अस्पष्ट किरदार व उनके संवत् 

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विक्रमादित्य व शालिवाहन : भारतीय परंपरा के दो अस्पष्ट किरदार व उनके संवत् 

~कृष्णकांत पाठक 

भारतीय परंपरा में वर्ष का बदलाव होने को है। भारतीय परंपरा में कैलेंडर वर्ष को बहुधा संवत्सर कहा जाता रहा है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के लिए जब हम ईस्वी सन् कहते हैं, तो उसमें सन् शब्द संवत्सर से ही आया है। संवत्सर के लिए अब्द शब्द भी है, जिससे शताब्दी या सहस्राब्दी भी बनते हैं। भारत बहुत प्राचीन संस्कृति वाला रहा है, इसका खगोल व ज्योतिष विज्ञान अविश्वसनीय सीमा तक विकसित था। सो यहाँ अनेक संवत्सर प्रचलित हुए।

 

महाकवि कालिदास रचित ज्योतिषशास्रीय ग्रंथ “ज्योतिर्विदाभरण” के अनुसार कलियुग में छह महापुरुषों ने संवत् चलाए- युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन, कल्कि। परंतु इनमें दो ही विशेष प्रचलित हो सके- विक्रम संवत् व शालिवाहन शक संवत्। शेष में तो अंतिम तीन के विषय में जनसामान्य को कुछ पता भी नहीं। इसके अतिरिक्त भी अनेक अन्य संवत् रहे हैं, जिनमें सृष्टि संवत् अत्यंत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय रहा है, जिसकी अवधि लगभग 2 अरब वर्ष की हो चुकी है और यह अब तक की विश्व के किसी भी कैलेंडर व्यवस्था के हिसाब से सबसे प्राचीन गणना है तथा सृष्टि के निर्माण वैज्ञानिक तथ्य के अपेक्षाकृत अधिक निकट पहुंचते दिखती है। अलग-अलग संवत् अलग-अलग मास या ऋतु में भी प्रारंभ होते हैं, जिनमें कृषि की दृष्टि से कार्तिक मास और चैत्र मास ही सबसे प्रमुख रहे हैं, क्योंकि प्रथम में खरीफ की फसल पक चुकी होती है और द्वितीय में रबी की फसल तैयार हो चुकी होती है। प्रथम परंपरा के साथ दीपावली का पर्व जुड़ता है और द्वितीय परंपरा के साथ होली का पर्व। दक्षिण भारत में अभी भी कार्तिक मार्च से प्रारंभ होने वाले संवत् प्रचलित रहे हैं।

वैसे सामान्य मान्यता है कि उत्तर भारत में विक्रम संवत् का प्राधान्य रहा है, जबकि दक्षिण भारत में शक संवत् का। उक्त दो में भी विक्रम संवत् बहुत कुछ निर्विवाद है, परंतु शालिवाहन शक संवत् में कई बार संवत् की बजाय केवल शालिवाहन शाके शब्द ही प्रयुक्त होता है। इससे ऐसा लगता है कि यहाँ शाके शब्द शक जाति की बजाय संवत् का वाचक है। 

 

विक्रमादित्य व शालिवाहन दोनों भारतीय परंपरा के संवत् प्रवर्तक हैं और दोनों ही इतने अस्पष्ट किरदार हैं कि उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाया जाता रहा है। विक्रमादित्य व शालिवाहन दोनों की अस्पष्टता उनकी समानता है, लेकिन दोनों प्रतिस्पर्धी भी माने जाते हैं। एक बहुमान्य विचारधारा के अनुसार शालिवाहन शक राजा थे और शक भारत में विदेशी थे। वे मध्य एशिया में मुख्यतः आज के इरान के आसपास के रहने वाले थे। वे सीथियन भी कहे गये। विक्रमादित्य की प्रसिद्धि उनके शकारि अर्थात् शकों का संहार व उन्मूलन करने में है।

 

आगे कोई वर्णन पढ़ने से पहले विक्रम संवत् व शालिवाहन शक संवत् का सामान्य प्रचलित अंतर जान लेते हैं। वर्तमान ईस्वी सन् के सापेक्ष देखें, तो विक्रम संवत् इसके 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था और शालिवाहन शक संवत् इसके 78 वर्ष पश्चात् प्रारंभ हुआ था। विक्रम संवत् व शालिवाहन शक संवत् के बीच 135 वर्ष का अंतराल है

 

शालिवाहन शक संवत् भारत सरकार का अधिकारिक राजकीय कैलेंडर है। विक्रम संवत् राजस्थान सरकार का अधिकारिक राजकीय कैलेंडर है।

यहाँ आकर दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं :—

प्रथम- यदि शालिवाहन शक संवत् था, तो यह भारत सरकार का अधिकारिक राजकीय कैलेंडर क्यों बना? क्या तत्समय भारतीय ज्योतिषी इतना साधारण सा तथ्य नहीं जानते थे कि शक मूलतः भारतीय नहीं थे? या फिर शालिवाहन शक संवत् में कोई ऐसी वैज्ञानिकता थी कि भारतीय ज्योतिषियोंं ने विक्रम संवत् पर उसे वरीयता दी?

द्वितीय– यदि एक बार विक्रम संवत् लोकप्रिय व मान्य हो चुका था, तो मात्र 135 वर्ष बाद शालिवाहन शक संवत् सहसा कैसे लोकप्रिय व मान्य हो गया, वह भी किसी विदेशी शासक के नाम पर चल कर। विक्रमादित्य ने शकारि बन कर शकों को पराभूत कर दिया था, तो क्या उनके जाने के कुछ ही दशकों के बाद शक साम्राज्य पुनः स्थापित हो गया? इसी से जुड़ा यह भी प्रश्न उठता है कि ये शालिवाहन कौन थे, जिनके होने पर ही संदेह किया जाता है?

पहले सवाल पर विचार करते हैं। विक्रम संवत् राजा विक्रमादित्य के द्वारा प्रारंभ किया गया संवत् है। विक्रमादित्य की लोकप्रियता राजा राम के बाद सर्वाधिक रही है। उनके समय व दरबार में महान खगोलशास्त्री वराहमिहिर थे। विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी थी और भारत में कर्क रेखा इस जगह से गुजरती है, सो वहां से समय गणना की कुछ सुविधाएं रही हो सकती हैं। वहाँ आज भी एक वेधशाला है, जो जयपुर के महाराजा सवाई राजा जयसिंह द्वारा बनवाई मानी जाती है। शिव उज्जैन में महाकाल हैं, इसकी एक ज्योतिषीय महत्ता भी हो सकती है। लेकिन क्या पता, वराहमिहिर की गणना में कोई चूक रह गई हो, जिसे बाद की ज्योतिषीय गणना में संशोधित किया गया हो। आर्यभट्ट ने बाद में कुछ निष्पत्तियों को संशोधित किया ही था। ब्रह्मगुप्त ने भी गणित में नवीन योगदान किया था। विक्रमादित्य के समय व दरबार में महाकवि कालिदास भी थे, जिनके द्वारा रचित ज्योतिषशास्रीय ग्रंथ “ज्योतिर्विदाभरण” प्रसिद्ध है। अधिकांश आधुनिक विचारक मानते हैं कि ये कालिदास महाकाव्य न नाटककार कालिदास से भिन्न व परवर्ती हैं, लेकिन यह भी बहुत पुष्ट नहीं है। यदि ये कालिदास वही हों और विक्रमादित्य के ही समय व दरबार में रहते रहे हों, तो कह सकते हैं कि उनके दरबार में एक और महान खगोलशास्त्री भी उपलब्ध थे।

 

वैदिक काल के उपरांत भारत में जो मास गणना प्रारंभ हुई उसमें चैत्र मास प्रथम मास है और फाल्गुन अंतिम मास है। महीनों के ये नामकरण भी नक्षत्रों के नाम पर हैं, इस कारण इनके नाम में पुनः कोई बदलाव नहीं हुआ।

 

जिस मास की पूर्णिमा को जो तिथि होती है, उसके आधार पर उसका नामकरण होता है। उदाहरणार्थ चैत्र मास की पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र में होती है, इसी कारण इस महीने का नाम चैत्र पड़ा। 

 

अब यदि चैत्र प्रथम मास है और फाल्गुन अंतिम मास तथा प्रत्येक मास कृष्ण पक्ष से शुरू होता है और पूर्णिमा पर समाप्त होता है, तो नववर्ष का आरंभ चैत्र कृष्ण पक्ष से होना चाहिए, जबकि हम नवसंवत्सर 15 दिवस के उपरांत चैत्र शुक्ल पक्ष में मनाते हैं। संभवतः प्राचीन परंपरा की एक मान्यता यह रही हो कि मास का अंत पूर्णिमा से होना चाहिए और वर्ष का आरंभ भी पूर्णिमा से होना चाहिए और इस कारण इस प्रकार का निदान किया गया होगा। यदि कोई संवत् चैत्र शुक्ल पक्ष से समाप्त होता है, तो वह चैत्र कृष्ण पक्ष में ही समाप्त होगा, क्योंकि मास तो 12 ही हो सकते हैं और उनमें भी 24 ही पक्ष हो सकते हैं। शालिवाहन शक संवत् ने इसका निदान करने के लिए चैत्र कृष्ण पक्ष से ही वर्ष का आरंभ माना और यह सुसंगत भी था। इस प्रकार होलिका दहन वर्ष का अंतिम दिन है और होली या धुलंडी नववर्ष का पहला दिन, जिसे कालांतर में विस्मृत कर दिया गया।

विक्रम नवसंवत्सर 2080 प्रारंभ हो रहा है। तदनुरूप शालिवाहन शक संवत् 1945 प्रारंभ हो रहा है। भारतीय परंपरा प्रत्येक संवत्सर को एक नाम देती है और ऐसे 60 नाम हैं, जिनका एक चक्र चलता रहता है। प्रति षष्टिपूर्ति पर पुनः वही नामकरण प्रारंभ हो जाता है। इस वर्ष के संवत्सर का नाम ‘पिंगल’ है। पिंगल पीताभ रंग है, जिसमें भूरे और सुनहरे रंग भी समाहित हो जाते हैं। लगता है, इस वसंत ने बसंती पीले रंग को चुन लिया है।

राजस्थान में बोलियों के भी दो महत्वपूर्ण प्रारूप रहे हैं- डिंगल और पिंगल। जो बोली पश्चिम में तप कर मरु व सिंधु की ध्वनि और शब्दों से जुड़ी, वह डिंगल हो गई। जो बोली पूरब में रससिक्त होकर ब्रज व यमुना की ध्वनि और शब्दों से जुड़ी, वह पिंगल हो गई। डिंगल की रससिद्धता वीर व रौद्र रस में है और पिंगल की रससिद्धता श्रृंगार व भक्ति रस में है। डिंगल में शिव का डमरूनिनाद है, पिंगल में कृष्ण की वंशीधुन है। एक में पुरुषोचित नाद का उद्घोष है, दूसरे में स्त्र्युचित माधुर्य का आदर्श है। प्रतीकात्मक रूप से जीवन इन्हीं का द्वैत है, वह बना रहेगा चलता रहेगा।

~कृष्णकांत पाठक (आईएस)

 

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