मुंशी प्रेमचंद का साहित्य एवं वर्तमान में तैरते प्रश्न

1461
0

मुंशी प्रेमचंद का साहित्य एवं वर्तमान में तैरते प्रश्न

―कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

आज प्रश्न -प्रतिप्रश्न उठते हैं कथाकार कैसा हो?उसका लेखन कैसा है? किन्तु हमारे हिन्दी साहित्य में एक ऐसा साहित्यकार हुआ जो सभी जगह उपस्थित है तथा यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रेमचंद की स्थापित परिपाटी के माध्यम से ही आगे की दिशा तय हुई ।जब बात हिन्दी में कथासंसार की उठती है तो सबसे पहले मुंशी प्रेमचंद का नाम स्वतः ही स्मरण पटल पर छा जाता है । इसके साथ ही उनके नाम के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति एक सहज आकर्षण एवं जुड़ाव पाता है। किसी लेखक का कालजयी होना तो यही है कि वह लोक के रंग में रंग गया है। इसके-उसके -किसके प्रेमचंद नहीं बल्कि हम सबके प्रेमचंद हैं । उनके नाम के साथ मुंशी जुड़ जाना हंस पत्रिका के संपादक द्वय कन्हैयालाल मुंशी एवं प्रेमचंद को पाठकों ने एक ही समझा जिसके चलते वे ‘मुंशी प्रेमचंद’ के रुप में विख्यात हुए और अब मुंशी के बिना प्रेमचंद अधूरा-अधूरा सा लगता है।इसी तरह उनका रचना संसार भी अपने आप में अनूठा है ,तकरीबन डेढ़ दर्जन भर उपन्यासों एवं सैकड़ों कहानियों के साथ प्रेमचंद आज हिन्दी साहित्य के अमर स्तंभ बने हुए हैं।

 

प्रेमचंद ने अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में लोक के उन विषयों को उठाकर स्थापित किया जिन्हें उपेक्षित समझा जाता था।उन सभी विषयों पर बेखौफ लेखनी चलाई। उनके लेखन में उपनिवेशवाद, राष्ट्रभक्ति, सामन्तवाद ,इस्लामी मानसिकता ,गरीबों-किसानों की व्यथा तथा नारी सशक्तिकरण एवं उसकी विवशता सहित वे सभी बिन्दु समाहित हैं, जो भारतीय समाज एवं तत्कालीन कालखंड की समस्याएं रही हैं।

 

उनके अन्दर गाँव-किसान समाया हुआ है।प्रेमचंद की एक खास विशेषता और रही है कि अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में प्रेमचंद ने उन्हें ही महानायक के तौर पर स्थापित किया जो उपेक्षित एवं पीड़ित है।लेखन का यह मूल स्वभाव ही है -‘गुणगान की बजाय दर्दबखान’ ही न्यायोचित होता है।प्रेमाश्रम,कर्मभूमि ,गोदान जैसे उपन्यासों में उन्होंने किसानों एवं उनके आन्दोलनों तथा किसानों की पीड़ा को चित्रकार की तूलिका की तरह उकेरकर नई क्रांति का सूत्रपात किया, जिससे साहित्यकारों की दृष्टि में किसान भी एक साहित्यिक विषय के केन्द्र तौर पर स्थापित हुआ।

 

प्रेमचंद की कहानी -जिहाद को ही लें तो उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस्लामी मानसिकता क्या और कैसी होती है? हिन्दुओं की पीड़ा और मुसलमानों के द्वारा धर्मांतरण एवं जो धर्मान्तरण को स्वीकार न करे उसके कत्लेआम को उतारु मुसलमानों का मार्गदर्शक कौन है? तो वहीं ईदगाह, पंचपरमेश्वर ,पूस की रात के मानकों को स्थापित करना भी प्रेमचंद की यथार्थपरक दृष्टि है।उन्होंने बिना किसी भय के भारतीय समाज में व्याप्त समस्याओं पर कलम चलाई है। उनका उपन्यास निर्मला जहाँ बेमेल विवाह के कंटकों को दर्शाता है वहीं प्रतिज्ञा नारी की दृढ़ता को बखूबी उकेरता है।

 

जब हम प्रेमचंद के साहित्य का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि – वर्तमान का चाहे नारीविमर्श हो या दलित साहित्य हो सभी उनके लेखन की ही जड़ों से निकलकर आते हैं ।आज भले ही इसका तमगा लगाने के लिए सिर फुटौव्वल मचा हो लेकिन अगर हम प्रेमचंद के साहित्य को एक गंभीर अध्येता या कि सामान्य पाठक की भाँति देखते हैं तो हमें प्रेमचंद किसी भी विचारधारा या वाद से ग्रस्त नजर नहीं आते। जहाँ तक ज्ञात है उन्होंने कभी भी विचारधाराओं की ढफोल शंखी को कोई महत्व नहीं दिया, बल्कि उन्हें जो पीड़ा दिखी उसी को उन्होंने अपनी लेखनी से रच दिया ।

 

उनके साहित्य लेखन की विचारधारा वही है जो उनकी दृष्टि में दिखा और जिसे उन्होंने महसूस किया ।प्रेमचंद बगैर किसी भी पूर्वाग्रह के उन्होंने कलम की धार से साहित्य का सृजन करते रहे आए। उनका साहित्य आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख होता दिखता है।यह अलग बात है कि जैसे-जैसे साहित्य का राजनीतीकरण होता गया वैसे -वैसे ही उन्हें किसी खास चश्मे से देखा जाना एवं अपने कुनबे में शामिल किया जाने लगा।

 

प्रेमचंद आज के उन सभी स्वनामधन्य नारीवादी, दलित साहित्य का ठप्पा लगाने वालों से बिल्कुल ही भिन्न श्रेष्ठ एवं उद्भट विद्वान थे ,जिन्होंने धरातलीय स्वरूप से अपनी कलम उठाकर यथार्थ को आदर्शों की प्रतिष्ठा प्रदान करने में सफल रहे। जहाँ वर्तमान का खेमेबाजी तबका या यह कहा जाए कि ‘साहित्यिक माफिया’ केवल जहाँ भारतीय सनातन संस्कृति के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अपने विमर्श की शुरुआत करता है। जबकि अन्य धर्मों की बुराइयों के ऊपर मुँह खोलना भी मुनासिब नहीं समझता । प्रेमचंद ने इन सबके इतर खरी-खरी कहते हुए पीड़ा को अभिव्यक्त देकर महत्ता स्थापित की।

 

उनका ‘बाजार-ए-हुस्न’ नामक उर्दू उपन्यास जो सन् 1918 में हिन्दी में ‘सेवासदन’ के रुप में प्रकाशित हुआ, उसमें उन्होंने नारी विमर्श का नया आयाम स्थापित किया।एक नारी का वेश्या बनने जैसा मृत्यु के समान दुस्कर कदम को चित्रित करना उनकी यथार्थ परक दृष्टि को ही दिखलाता है। डॉ.रामविलास शर्मा ने सेवासदन में प्रेमचंद द्वारा व्यक्त की गई पीड़ा को भारतीय नारी की पराधीनता ही माना है।

 

उन्होंने अपने साहित्य में आम बोलचाल की भाषा के माध्यम से पाठकों एवं जनसामान्य को जोड़ा जो आज भी उतने ही महत्व का है जितने महत्व का तब था। उर्दू की पृष्ठभूमि से हिन्दी की यात्रा करते हुए साहित्य के पटल में प्रतिष्ठित एवं स्थापित होना उनकी सम्वेदनापरक एवं यथार्थ के विशुद्ध चित्रण का ही प्रमाण है।प्रेमचंद का ‘गोदान’ उपन्यास हिन्दी साहित्य में ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य में ‘सामन्तवाद की पीड़ा’ जो कि सम्पूर्ण विश्व में किसी न किसी रुप में व्याप्त है को प्रस्तुत कर कालजयी एवं सर्वदा प्रासंगिक विमर्श का केन्द्र स्थापित किया है। यदि किसी को सामन्तवाद की त्रासदी में विमर्श करना है तो वह ‘गोदान’ को उपेक्षित करके आगे नहीं बढ़ सकता है।

 

सन् 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की.अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने जो बात कही वह वर्तमान में ही एक नया विमर्श पैदा करने की सामर्थ्य रखती है। उन्होंने कहा था कि -“लेखक स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है जो ऐसा नहीं है वह प्रगतिशील नहीं है” ।क्या आज के सन्दर्भ में प्रगतिशील का ठप्पा लगाने वालों में देखा जा सकता है?

 

इसलिए साहित्यिक खेमेबाजी का ठप्पा लगा लेने एवं माफियागीरी की कुटिलताओं की जुगाली करते रहने से हम उसके कर्ता-धर्ता एवं झण्डाबरदार नहीं हो जाते बल्कि प्रेमचंद जैसे विषयों के धरातल में उतरकर बिना किसी लाग-लपेट एवं कुण्ठा के साफगोई के साथ सत्य निष्ठापूर्वक लेखनी चलाने की आवश्यकता होती है।

 

किन्तु हिन्दी साहित्य में जब से खेमेबाजी का राजनैतिक अखाड़ा बना उसके बाद से लेखकों का झुण्ड आरोप-प्रत्यारोप एवं अपनी कुण्ठा एवं पूर्वाग्रह को ही साहित्य का मुखौटा लगाकर परोसने पर जुटे हुए हैं। स्वयं को झण्डाबरदार मानने वाले साहित्यिक माफिया जहाँ प्रत्येक बात को अपने पाले में ऐनकेन प्रकारेण करके अपनी ही मनगढ़ंत बातों को सिध्द करने में जुट जाते हैं ।

 

ऐसे ही साहित्यिक माफिया सरनेम हटाकर अपने आपको बड़ा ही प्रगतिशील और आधुनिक मानते हैं ‌ । और प्रेमचंद को भी इसी बात के साथ जोड़ने लग जाते हैं, जबकि प्रेमचंद के साथ ऐसा कदापि नहीं था। उनका अपना सरनेम हटा लेना एवं मुख्य नाम को विलोपित करना उपनिवेशवाद की मजबूरी थी अन्यथा वे धनपतराय श्रीवास्तव के रुप में भी इसी तरह प्रासंगिक एवं समस्त मानकों पर खरे उतरते।

 

उन्होंने जिस अभाव पीड़ा को झेला उसे व्यापक जनसमूह एवं देश के साथ जोड़कर समस्याओं के निराकरण के लिए लेखनी चलाई जो कि उन्हें कालजयी बनाता है।प्रेमचंद साहित्य की नई क्रांति के जनक हैं ,उन्हें आए दिनों होने वाले साहित्यिक विमर्शों में किसी खास बैनर के साथ जोड़कर दिखलाना उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल करना एवं उनके कद को सीमित करने जैसा अपराधिक कृत्य है जिसके लिए ऐसा करने वालों को माफ करना न्यायोचित नहीं है।

 

प्रेमचंद तो लोक से जुड़े हुए ऐसे साहित्य पुरोधा हैं जो साहित्य के आकाश में नई दृष्टि प्रदान करते हैं।प्रेमचंद को किसी खास नजरिए से देखने की बजाय उनको समग्र दृष्टिकोण के साथ देखना होगा।उनका सृजन ही उनकी अभिव्यक्ति एवं विचारधारा है ,जिसमें सभी जगह लोक ही रचा-बसा हुआ है। विचारणीय यह है कि आज जब साधन सम्पन्न एवं बैनरों के बीच युध्द के घोष भी साहित्य के अखाड़े में देखने को मिलते हैं ,तब भी साहित्यकार कालजयी क्यों नहीं होते?या कि पूर्वाग्रहों एवं कुण्ठाओं में डुबकी लगाते हुए साहित्य में कचरे का ढेर ही एकत्रित क्यों होता जा रहा। साहित्यकारों को यह बात अपने मनोमस्तिष्क में बैठा लेनी चाहिए कि साहित्य को लोक का पर्याय होना चाहिए न कि व्यक्ति का ,क्योंकि यह लोक ही तो साहित्य है!!

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here